प्रमाणित करता हूँ कि प्रस्तुत रचना स्वलिखित एवम् नितांत मौलिक है
प्रकाशन हेतु
गोप कुमार मिश्र
प्रकाशन हेतु
गोप कुमार मिश्र
******श्रमिक की व्यथा********
गैरों के यारो क्या कहने, जब अपनें मुकर गये।
साया भी साथ नही देता, अरसे गुजर गये ।।
हम श्रमिक बने, जलते ही रहे, सूरज की छाँव तले
अब याद नही, सोए थे कभी, अम्बुवाँ की छाँव तले
जिन राहों पर, चलना सीखा, वो जाने किधर गये
साया भी साथ नही देता**************************
मीलों- मीलों, टीलों-टीलों, हम नंगे पाँव चले
रिसते छाले, रिसते ही रहे, धरती ने पाँव मले
अपनों में जिए, अपनों के लिए, और अपनें बिछड गये
साया भी साथ नही देता**************************
अधरों को सिए, आँसू ही पिए, पत्थर मे प्राण भरे
कंकण कंकण, पत्थर पत्थर, शूलो ने त्राण गहे
सपनों मे जिए, सपनों के लिए, और सपनें बिखर गये
साया भी साथ नही देता**************************
गोप कुमार मिश्र